Raising Children – A Great Responsibility-
Keypoints:
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बच्चों के भविष्य निर्माण की एक बड़ी जिम्मेदारी होती है.
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भविष्य में बच्चे कैसे बनेगे ये माता-पिता को सोचना है?
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इस दौड़ती दुनिया के हिसाब से बच्चों को सक्षम बनाने की जरुरत को समझना पड़ेगा.
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हमें अपने बच्चों को कैसा बनाना है ये सोचना एक बड़ा काम है?
चलिए इस पर चर्चा करते है...
Parenting Child-rearing Family-Life Guiding-Kids
Raising Children – A Great Responsibility-
समय के सिर छोड़े हुये बच्चों का विकास जंगली झाड़ियों की तरह होता है, जिसमें फूल कम और काँटे अधिक होते हैं. उसमें भी अधिकतर फूल निर्गन्ध होते हैं और गन्ध वाले फूल भी निरर्थक - निरुपयोगी रह जाते हैं. इसके विपरीत जिन बच्चों का पालन कुशलता से किया जाता है वे एक चतुर माली के व्यवस्थित उद्यान की भाँति सुन्दर और सुगन्धित होते हैं।
बच्चे समाज की स्वतंत्र इकाई भी हैं-
बच्चों का पालन-पोषण केवल अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझकर ही नहीं, उसे राष्ट्र एवं समाज की धरोहर मान कर करना चाहिये. उनकी शिक्षा-दीक्षा के लिए दमनात्मक रवैया नहीं अपनाना चाहिए, अपितु मैत्रीपूर्ण मार्गदर्शन करना चाहिए. साधारणतः माता-पिताओं का यह विश्वास होता है कि उनकी सन्तान उनको ईश्वर प्रदत्त ऐसी सम्पत्ति है, जिसको वे जिस तरह चाहें उपयोग में ला सकते हैं. और तो और, अपने सिवाय स्वयं बच्चे का भी अधिकार उस पर नहीं समझते. वे सदैव यही चाहते हैं कि उनके बच्चे यंत्रवत् उनके आज्ञानुसारी रहें ।
बच्चे को अपना समझने के साथ-साथ उसे समाज की एक स्वतंत्र इकाई मान कर उसका पालन-पोषण किया जाना चाहिये. यदि आज वह अपने माता-पिता के सहारे समाज में चलता है. तो कल उसे एक स्वतंत्र सदस्य की हैसियत से समाज में व्यवहार करना होगा. यदि उसको व्यावहारिक तैयारी कर समाज में न उतारा गया, तो अवश्य ही वह अयोग्य विद्यार्थी की तरह असफल जायेगा. तब निःसन्देह वह समाज में पिछड़ा हुआ और घिसट-घिसट कर चलने वाला पंगु सदस्य होगा, जो न तो समाज से ही कुछ लाभ उठा सकेगा और न समाज को ही उससे कुछ लाभ हो सकेगा।
अपने बच्चों से एक सभ्य नागरिक की तरह व्यवहार करना चाहिए. उससे जन्मजात अपना अधिशासित समझकर हर समय आदेश की भाषा में न बोला जाये. इससे उसके मानसिक विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है. हर समय आदेश की भाषा सुनते-सुनते उसमें खिन्नता और मलीनता का प्रादुर्भाव होने लगता है. उसे हाथ का बरतन मानकर मिनट-मिनट पर छोटे- छोटे कामों के लिये दौड़ाना ठीक नहीं. इससे उसमें कर्त्तव्यों के प्रति अरुचि और गुरुजनों के प्रति अश्रद्धा होने लगती है, जिससे यह उनसे मुँह छिपाने की कोशिश करने लगता है।
बच्चों में आत्मविश्वास जगाएँ-
बच्चों की महत्त्वहीन समझ कर व्यवहार करने से वे अपने को नगण्य और अनुपयोगी समझने लगते हैं, जिससे आगे चलकर उनमें आत्म- विश्वास की कमी हो जाती है. किसी काम के न कर सकने अथवा बिगड़ जाने पर उनकी खिल्ली उड़ाना अथवा उनके किसी बचपन से मनोरंजन करना उचित नहीं है. इससे वे हतप्रभ और चिड़चिड़े हो जाते हैं। किसी निर्णय में दी हुई उनकी राय या कही हुई बात की, परते ही कोई अर्थ न रखती हो, एकदम कृत कर देने से उनकी हिम्मत टूट जाती है, जिससे उनमें अयोग्यता अंकुरित हो सकती है।
बच्चों की सहज अनुकरण बुद्धि और सुकुमार मानसिक धरातल को ध्यान में रखकर ही उनसे व्यवहार करना चाहिये, जिससे कि यदि वे अनुकरण करें तो अच्छी बातों का और यदि कोई संस्कार उनके मन पर पड़े तो अच्छा ही पड़े. प्रायः अभिभावक अपनी गुरुता के गर्व में बच्चों सम्बन्धी व्यवहार में सोच-विचार करना कुछ अपने गौरव के अनुरूप नहीं समझते, जब कि सबसे बड़े गौरव की बात यही है कि उनके व्यवहार से बच्चे होनहार बन कर समाज में अपना स्थान निर्धारित कर सकें।
अपनी जिम्मेदारियाँ समझें-
बच्चों के पालन-पोषण का अर्थ केवल यही नहीं है कि भूख लगने पर रोटी खिला दी जाये, कपड़े फटने पर कपड़े बनवा दिये जायें, मांगने पर पैसे दे दिये जायें और जरूरत पड़ने पर पुस्तकें आदि ले दी जायें और इससे अधिक कुछ किया तो स्कूल की ओर खदेड़ दिया. बाकी अपना खेलो - कूदो, पढ़ो लिखो और बड़े होते रहो।
समाज की आगामी आवश्यकता को ध्यान में रखकर उसका निर्माण ठीक उस जिम्मेदारी से करना चाहिये, जिस प्रकार एक शिल्पी कोई भवन बनाता है अथवा कोई ईमानदार इंजीनियर पुल का निर्माण कराता है. बच्चों को अपनी क्षमता के अनुसार सुन्दर से सुन्दर वातावरण में रखना चाहिये. उनसे आदरपूर्वक बात की जानी चाहिये, जिससे उनके मन पर ऊँचे संस्कारों की छाप पड़े. अवकाश के समय बच्चों से नियमित रूप से देश-विदेश के ऐसे विषयों पर कुछ न कुछ बात अवश्य करनी चाहिये, जिसको वे किसी हद तक समझ सकें और जिनमें उनकी रुचि और हित सन्निहित हो. इससे उनकी विचार परिधि का प्रसार होगा और उनमें सार्वदेशिक एवं सार्वभौमिक चेतना का स्फुरण होगा।
बच्चों को अदब सिखाने के लिये आवश्यक है कि उनका भी अदब किया जाये. उन्हें साधारण सामाजिक शिष्टाचार की शिक्षा के दी जाए. परिवार में, गुरुजनों के संग तथा भाई-बहिनों के साथ शिष्टाचार का अभ्यास कराया जाए, उनकी झिझक दूर करने और मिलनसार बनाने के लिये घर आये अतिथियों और मित्रों का स्वागत करते समय उनके बच्चों का स्वागत बच्चों से कराना अधिक श्रेयस्कर होगा. आगन्तुकों के समक्ष उनसे ऐसा व्यवहार किया जाना चाहिये, जिससे वे अपने को परिवार का महत्त्वपूर्ण अंग अनुभव कर सकें. इससे परिवार के माध्यम से उनमें सद्भावना बढ़ेगी और दूसरों के मन में उनके - प्रति आदर उत्पन्न होगा. नवागन्तुकों के साथ परिचय कराते समय ऐसी शैली का प्रयोग किया द चाहिये जैसे वे एक-दूसरे के पूरक हों।
हँसी-खुशी का वातावरण रहे-
कुछ अभिभावक स्वभाव से बड़े सख्त होते हैं. उनके आते ही घर में एक कोने से दूसरे कोने तक सन्नाटा छा जाता है. बच्चे सहम जाते हैं, सब खामोश हो जाते हैं. सारे काम निर्जीव यन्त्र की तरह होने लगते हैं. घर के पूरे वातावरण में एक निरुल्लास परिवर्तन आ जाता है. मानने को तो इसे अनुशासन माना जा सकता है किन्तु इसमें अदब से अधिक भय का अंश रहता है और भय की अनुभूति न किसी को पसन्द होती है और न उससे कुछ बनता है. इससे स्वाभाविक स्नेहिल प्रवृत्तियों का ह्रास हो जाता है।
होना तो यह चाहिये कि पिता के आते ही सारे बच्चे पुलकित होकर पिताजी! पिताजी !! कहते हुए चारों ओर से घेर लें और अपनी-अपनी कहने सुनने लगें और पिताजी "अच्छा यह बात” कहते हुए हँसते-मुस्कराते बच्चों से घिरे कमरे में पहुँचें।
कुछ अभिभावक बाहर की खीझ घर पर उतारा करते हैं यह ठीक है कि उन्हें दफ्तर अथवा व्यावसायिक स्थान पर कुछ ऐसी स्थिति को सहन करना पड़ा है, जिससे उनके मन में एक क्षोभ पैदा हो गया है इसका यह मतलब कदापि नहीं है कि उसका बदला घर आकर बच्चों से लिया जाये, उन्हें बोलते या पास आते ही झिड़का और डाँटा जाये. अपने भावावेगों पर इतना नियन्त्रण अवश्य रखना चाहिये कि वे अनुचित देशकाल में न प्रकट होने पावें।
रुचि का सम्मान कीजिए-
अभिभावकों को यथा सम्भव बच्चों की रुचि की रक्षा करनी चाहिये. उनकी रुचि पर अपनी रुचि को आदतन हठपूर्वक नहीं थोपना चाहिये. जिन बातों में वे समझें कि बच्चे की रुचि ठीक नहीं रहेगी, उन्हें बच्चों को प्रेमपूर्वक इस प्रकार समझा दिया जाना चाहिए जिससे उसमें यह भावना न आने पाये कि छोटा होने के कारण उसकी बात नहीं मानी जाती है. बच्चों की इच्छाओं के संशोधन में उपयोगिता, लाभ अथवा हित का समावेश अवश्य होना चाहिये. यों ही अकारण संशोधन ठीक नहीं, क्योंकि इस प्रकार की आदत स्वयं एक बचपना है जो अभिभावक को शोभा नहीं देता।
कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चों को ऐसे व्यवहार और वातावरण के बीच रखा जाना चाहिये जिससे उनमें बड़प्पन और विनम्रता की भावना बढ़े. अवसर आने पर उन्हें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सुन्दर स्थानों पर साथ ले जाना चाहिये. इससे उनमें ज्ञान की वृद्धि होने के साथ- साथ नवीन स्थानों के आचार-विचार और रहन-सहन से भी परिचय होगा जो आगे चलकर उनको बहुत काम देगा।
इस प्रकार यदि प्रयत्न करके बच्चों की वर्तमान पीढ़ी को सभ्य सामाजिक बनाकर जीवन-क्षेत्र में उतारा जाये तो कोई कारण नहीं है कि आज का सड़ा-गला समाज सुन्दर और स्वस्थ रूप में न बदल जाये।
Amit Sharma
Writer