Music Therapy: It is Possible to Cure all Diseases through Music:
संगीत का प्रभाव वातावरण पर पड़ता है. संगीत से वृक्ष-वनस्पतियों, फसलों और पशुओं पर पड़ने वाले प्रभाव को अब सर्वत्र वैज्ञानिक मान्यता मिल चुकी है. रोगों की निवृत्ति में संगीत की भूमिका निकट भविष्य में और भी अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी और उसे चिकित्सा प्रयोजनों में एक विशेष उपचार के रूप में प्रयुक्त किया जाने लगेगा-अब ऐसा होने में कोई शंका नहीं रह गई है. वैदिक और तांत्रिक मंत्रों का सारा वाङ्मय इस तथ्य को अपने में छिपाए बैठा है. किसी भी रीति से किसी भी ध्वनि से ज्यों-त्यों करके की गई मंत्र-साधना साधक की भावनात्मक आकांक्षा तो पूरी कर सकती है, पर उससे वे वैज्ञानिक लाभ नहीं मिल सकते, जिनके लिए मंत्राराधन का शास्त्रसम्मत ढाँचा खड़ा किया गया है. यही तथ्य संगीत पर भी लागू होता है।
संगीत को शब्दब्रह्म एवं नादब्रह्म का नाम दिया गया है. सुनियोजित संगीत का प्रभाव गायक के शरीर और मन पर पड़ता है. सुनने वाले मात्र भावतरंगित होकर हर्षोल्लास ही प्राप्त नहीं करते, वरन उन्हें इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ मिलता है। अनुसंधानकर्त्ता वैज्ञानिकों के अनुसार शास्त्रों में वर्णित संगीत की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि अब इसे विज्ञान भी स्वीकार कर रहा है।
वस्तुतः भारतीय संगीत की आत्मा-राग-रागिनियों के निर्माण के पीछे मात्र स्थूल दृष्टिकोण ही नहीं था, वरन उसके द्वारा व्यक्ति में अंतर्निहित सूक्ष्म शक्तियों, भावनाओं, विशिष्टताओं एवं हृदय के प्रत्येक तार को झंकृत करने का सिद्धांत हुआ करता था. राग-रागिनियाँ विविध मनोदशाओं के द्योतक होते हैं और इसी कारण वे अपनी भावदशा के अनुरूप व्यक्ति में रसानुभूति का संचार कराने में समर्थ होते हैं. साहस, उत्साह, विषाद, करुणा आदि भाव इनसे ही उपजते हैं।
संगीत विचारों एवं भावनाओं के संप्रेषण का एक युक्तिसंगत माध्यम है, जो चिंतन एवं भावनाओं के द्योतक अनेक स्वरों के छोटे या बड़े समूह को अभिव्यक्त करता है. इसी आधार पर संगीत चिकित्सा संभव हो पाती है. मूर्द्धन्य वैज्ञानिक वी० वी० गार्डनर ने अपनी अनुसंधानपूर्ण कृति 'म्यूजिक थेरेपी' में लिखा है कि संगीत का प्रभाव नाड़ी तंत्र, श्वास-प्रश्वास, रक्तदाब एवं अंतःस्रावी ग्रंथियों पर पड़ता है. इस संबंध में प्राचीनकाल में विभिन्न प्रयोग हुए थे एवं वर्तमान में भी हो रहे हैं ।
संगीत द्वारा रोगों को दूर करने की बात उतनी ही पुरानी है, जितना कि संगीत स्वयं है. सामवेद में रोगों के निवारण के लिए राग-गायन का विधान मिलता है. अश्विनीकुमार के भैषज तंत्र में प्रत्येक रोग के लिए चार प्रकार के भैषज कहे गए हैं- पवनौकस, जलौकस, वनौकस एवं शाब्दिक. यहाँ शाब्दिक भैषज का आशय है- मंत्रोच्चारण एवं लयबद्ध गायन. कौंच मुनिकृत- कुर्णक प्रभा एवं मैंद ऋषि द्वारा रचित- शब्द कुतूहल में रोगी के शब्द से रोग निदान, शाब्दिक औषधि, वीणा, तंत्री, पणव, शंख, भेरी, मृदंग, मंजीर, वंशी आदि वाद्ययंत्रों को भैषज से ही बनाने और उनको सुनाकर रोगापहरण का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है. प्रत्येक रोग के लिए पृथक-पृथक वाद्यों के शब्द और कौन किसके लिए उपयुक्त है, आदि का उल्लेख किया गया है. वस्तुतः संगीत में असाधारण जीवनदायी सत्ता विद्यमान है। यदि उसका सम्यक उपयोग किया जा सके तो मानव चेतना को प्रगति-पथ पर अग्रसर होने का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हाथ लग सकता है।
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Amit Sharma
Writer