It is Necessary for the Ecosystem to Remain Balanced:
धरती सभी जीवों की धरणी है अर्थात वह हम सभी को जन्म देती है, हमें धारण करती है, हमारा पोषण करती है और अंत में हम सबको, अपने में समा लेती है। धरती की कोख से जन्मे सभी जीव एवं वनस्पति अपने-अपने ढंग से अपने जीवनचक्र का संचालन करते हैं और उसी के अनुरूप पारिस्थितिकीय तंत्र को भी संतुलित रखते हैं। प्रत्येक जीव एकदूसरे से भिन्न होते हुए भी पारिस्थितिकीय तंत्र के माध्यम से, एकदूसरे से गहराई से जुड़ा हुआ है और एकदूसरे को प्रभावित भी करता है।
धरती पर सभी कार्य समय पर होते हैं। निर्धारित समय पर वर्षा आती है, निर्धारित समय पर गरमी आती है और निर्धारित समय पर ही ठंढ अपने पाँव पसारने लगती है। इसी कारण सभी ऋतुओं का अपना-अपना विशिष्ट महत्त्व है। वर्षा ऋतु अपने आप में सुहानी ऋतु है। इससे न केवल भूमि तृप्त होती है, बल्कि तन-मन भी तृप्त होते हैं। विशाल घने-काले बादल पानी को वाष्प बनाकर आकाश में उड़ाते हैं और जब ये बरस पड़ते हैं तो सूखी धरती, प्यासे जीव-जंतु, सभी जल से सराबोर हो उठते हैं। इस तरह वर्षा सबको जीवन देती है और धरती की हरीतिमा को बढ़ा देती है।
वर्षा ऋतु समय पर नहीं आती है तो हम सब चिंतित हो जाते हैं। ऐसा उस वर्ष विशेष रूप से होता है, जिसे अल-नीनो का वर्ष कहते हैं। सामान्य रूप से दक्षिण अमेरिकी देश पेरू के पश्चिम में प्रशांत महासागर का पानी ठंढा रहता है; क्योंकि उस समय सागर की गहराई में स्थित ठंढा पानी सतह पर आ जाता है। इस ठंढे पानी के साथ ही समुद्र के नीचे जमे हुए पोषक पदार्थ भी ऊपर आ जाते हैं। इनके कारण समुद्री वनस्पति के उत्पादन में भारी वृद्धि हो जाती है और इन पौधों को खाने से समुद्री झींगों की संख्या बढ़ जाती है। इस प्रकार पारिस्थितिकीय क्रम चल पड़ता है। मछलियों को खाने वाले समुद्री पक्षी विकसित होते हैं और इनसान इन मछलियों का खूब शिकार करते हैं। इन मछलियों को पेरू के निवासी खाद के रूप में प्रयोग करते हैं; क्योंकि इनमें फॉस्फोरस बहुतायत से होता है।
इसके विपरीत अल-नीनो के वर्ष में यह पूरा चक्र बिखर जाता है और पेरूवासियों पर आफत आ जाती है। इससे हम भारतवासी भी प्रभावित होते हैं; क्योंकि सागर और वायुमंडल के आपसी संबंध इतने दूर-दूर तक होते हैं कि अल-नीनो के वर्ष में कई बार भारत में भी कम वर्षा होती है। इस तरह प्रकृति का चक्र चलता रहता है। और वह पादप, वनस्पति एवं जीवों के विकास के संसाधन जुटाती चली जाती है। माना जाता है कि सायनोबैक्टिरिया, जो प्रकाश की ऊर्जा का अवशोषण करता है, साढ़े तीन अरब वर्ष पहले पृथ्वी पर प्रकट हुआ था। जबकि वर्तमान में पाए जाने वाले मत्व्याहारी पनकौए (कामोरांड) मात्र बीस करोड़ वर्ष पूर्व ही जन्मे थे। इस लंबी अवधि में जीव-जगत की विविधता फलती-फूलती रही है, विभिन्न पारिस्थितिकीय तंत्रों में ऑक्सीजन और फास्फोरस जैसे पदार्थों और ऊर्जा के चक्र अधिकाधिक समृद्ध होते रहे हैं।
पारिस्थितिकीय तंत्र में विकास का यह क्रम प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया के कारण ही संभव हो पाता है। कुछ नया कर गुजरने की क्षमता ही प्राकृतिक चयन में सफलता की कुंजी है। प्रशांत महासागर में यह प्रक्रिया अनेक रूपों में संपन्न हुई और इसी कारण न केवल प्रशांत महासागर में, बल्कि अन्य महासागरों में भी जीव एवं वनस्पतियों की नई-नई प्रजातियाँ विकसित होती चली गईं।
माना जाता है कि लगभग पौने चार अरब वर्ष पूर्व समुद्र की गहराइयों में ऐसे जीव प्रकट हुए जो हाइड्रोजन, लौह, गंधक के यौगिकों के अणुओं की ऊर्जा का दोहन कर सकते थे। ऐसा होने का स्पष्ट प्रमाण तो नहीं मिलता है, लेकिन साढ़े तीन अरब वर्ष पूर्व प्रकाश को ऊर्जा का स्रोत बना सकने वाले साइनोबैक्टिरिया फलने-फूलने लगे थे, जिसके आधार पर वर्तमान पारिस्थितिकीय तंत्र के विकास की संभावना को बल मिलता है।
धरती पर जब वनस्पति जगत का विकास हो रहा था तो सबसे बड़ी समस्या थी—पराबैंगनी किरणें। उस समय वातावरण में ऑक्सीजन अत्यंत न्यून थी और इन किरणों को सोखने वाली ओजोन भी नहीं थी, परंतु पानी, पराबैंगनी किरणों को अच्छी तरह सोख लेता है। अतः ऐसी गहराई में प्रकाश की ऊर्जा का दोहन संभव था, जहाँ पराबैंगनी किरणों से मुक्त प्रकाश पहुँचे। इसे कुदरत का करिश्मा ही कहना चाहिए कि ऐसे स्थानों पर सायनोबैक्टिरिया फलने-फूलने लगे और क्लोरोफिलयुक्त बैक्टिरिया इन अवशेषों पर जमने लगे। इस प्रकार तीन अरब वर्ष तक विकास की अवस्था इसी तरह बनी रही।
इन क्लोरोफिलयुक्त बैक्टिरिया के द्वारा ऑक्सीजन के उत्पादन के कारण हवा और पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती गई और उसके कारण विभिन्न जीव प्रजातियों का विकास संभव हो सका। शर्करा सभी जीवधारियों की ऊर्जा का आधार है। ऑक्सीजन का उपयोग किए बिना ग्लूकोज के एक अणु से जितनी ऊर्जा मिल सकती है, उससे पंद्रह गुना ऊर्जा तब मिलती है, जब ऑक्सीजन का उपयोग किया जाए, परंतु ऊर्जा के दोहन में ऑक्सीजन का उपयोग करने के लिए नई रासायनिक प्रक्रियाओं की आवश्यकता थी। ऑक्सीजन के मिलने से बैक्टिरिया से बड़े आकार के और अधिक जटिल संरचना वाले जंतुओं के बनने की राह आसान हो गई। ये एककोशिकीय जीव, चाबुकनुमा तंतुओं की सहायता से पोषक पदार्थ के कणों को अपनी ओर खींच सकते थे। यही नहीं, इनमें से कुछ जंतु तैर सकते थे और बैक्टिरिया, वनस्पतियों और अन्य जंतुओं का शिकार भी कर सकते थे।
वैज्ञानिकों के अनुसार, यह घटना साठ करोड़ वर्ष पहले घटी। इसके बाद शनैः-शनैः बहुकोशिकीय जंतुओं का जन्म हुआ। इन जंतुओं ने अपनी शारीरिक सुरक्षा के लिए अपने शरीर को काँटों से आच्छादित कर लिया और भीतर अस्थिकंकाल एवं बाहर सुरक्षा कवच का निर्माण कर लिया। इस तरह कवच, कंकालधारी जीव पैदा हुए। इसके पश्चात स्पंज पैदा हुए, जिनके शरीरों पर छेद होते हैं और शरीर अंदर से खोखला होता है। ये एक ही स्थान पर स्थिर रहकर भोजन के कणों को पानी के प्रवाह के द्वारा अवशोषित कर लेते हैं। समुद्र के नीचे बड़ी मात्रा में संचित भोजन कण हैं, इन्हें ग्रहण करने के लिए ऐसे शरीर की आवश्यकता थी जिसमें सिर, धड़, पूँछ, मांसपेशियाँ और मस्तिष्क हो। इस तरह कृमियों से लेकर झींगों, मधुमक्खियों, मछलियों, पक्षियों, बंदरों जैसे जंतुओं का निर्माण संभव हो सका।
इस तरह धीरे-धीरे धरती पर जीव-जंतुओं का विकास प्रारंभ हुआ और अंत में इस कड़ी में मनुष्य जुड़ सका। इन सबकी सहायता से पर्यावरण समृद्ध हुआ । यही पारिस्थितिकीय तंत्र है, जहाँ पर सभी जीव- जंतु आपस में एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। बढ़ती हुई स्वार्थवृत्ति के कारण मनुष्य आज इस बात को भूल गया है कि वह इतने लंबे वर्षों के इतिहास में जुड़ी एक कड़ी मात्र है, जिसका अस्तित्व, उसके पहले आए अनेकों प्राणियों के अस्तित्व के बगैर संभव नहीं था। आज इनसान को प्रकृति का एक अंग बनकर इस पारिस्थितिकीय तंत्र को समृद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिए, तभी वह स्वयं को मिले इस महत्त्वपूर्ण स्थान के साथ न्याय कर सकेगा।
Amit Sharma
Writer