Group spirit is necessary for success:
Keypoints:
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क्या सफलता के लिए जरूरी है समूह-भावना
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समूह-भावना क्या होती है?
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समूह में काम करने के क्या फायदे है?
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एक टीम या संगठन के रूप में काम करना कितना जरुरी है?
आगे बात करते है....
क्या सफलता के लिए जरूरी है समूह-भावना
समूह-भावना क्या होती है?
समूह में काम करने के क्या फायदे है?
एक टीम या संगठन के रूप में काम करना कितना जरुरी है?
आगे बात करते है....
टीम वर्क यानी दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा एक ही दिशा में, एक ही उद्देश्य को लेकर मिलकर कार्य करने की भावना. प्रबंधन की भाषा में कहा जाए तो एक जुझारू नेतृत्वकर्त्ता अपने दम पर कमजोर टीम को कामयाब नहीं बना सकता, लेकिन चुनिंदा क्षमतावान, प्रतिबद्ध, उत्साही एवं व्यक्तिगत उपलब्धियों की भावना से परे लोग एक साधारण नेतृत्वकर्त्ता की अगुआई में भी किसी टीम को विजेता बना सकते हैं. लगातार अच्छे प्रदर्शन के लिए टीम की ताकत को समझते हुए उसे निरंतर प्रोत्साहित करने की जरूरत होती है।
संगठनों की बात यदि की जाए तो ऐसा देखा जाता है कि कुछ संगठन आरंभ में अपनी उत्पादकता से एक के बाद एक इतिहास रचते हैं, लेकिन बाद में वे ही संगठन कामयाबी की एक सीमा के बाद उससे ऊपर नहीं उठ पाते और उसी स्तर तक रह जाते हैं. इसके पीछे का कारण यह है- टीम की ताकत को नजरअंदाज करना, नेतृत्वकर्त्ता द्वारा " अपनी उपलब्धियों पर आत्ममुग्ध होना और इसके लिए किसी और को श्रेय न देने की भावना होना, आदि। यही कारण है कि शुरुआत में जोरदार प्रदर्शन करने वाली टीम बाद में बिखर जाती है और फिर उसकी जगह जो लोग आते हैं, वो उनके समान कार्य का प्रदर्शन करने में सफल नहीं हो पाते। अतिआत्मविश्वासी नेता को या तो यह बात समझ में नहीं आती या फिर जब समझ में आती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।"
आज यह विडंबना ही है कि कई नेता यही समझते हैं कि टीम के किसी भी प्रदर्शन के पीछे वे ही हैं, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है. अगर टीम प्रेरित और उत्साही होने के बजाय आत्मकेंद्रित और उदासीन है, तो ऐसी टीम के साथ कोई भी महत्त्वाकांक्षी अभियान पूरा कर पाना संभव नहीं हो पाता. अगर कोई नेता यह समझता है कि उसकी टीम में कोई व्यक्ति कार्य करे या न करे, वह खुद इतना सक्षम है कि किसी भी अभियान को अपने दम पर आगे ले जा सकता है, तो यह उसकी भूल ही कही जाएगी. वास्तव में अपनी कर्मठता और जुझारूपन की वजह कामयाबी के एक चरण तक तो पहुँचा जा सकता लेकिन निरंतर कामयाबी पाने और आगे जाने के लिए टीम का सहयोग मिलना बेहद जरूरी हो जाता है।
टीम का समुचित साथ न मिलने पर अकेले दम पर चलते-चलते अंततः नेतृत्वकर्त्ता का उत्साह भी कम हो सकता है, जबकि कर्मठ टीम का सदस्य होने पर हर अभियान को उत्साह के साथ पूरा किया जा सकता है. कोई भी टीम अपने आप मजबूत नहीं बन जाती. टीम की मजबूती के लिए टीम के हर सदस्य के भीतर एकदूसरे के प्रति सहयोग और आत्मीयता की भावना होने के अलावा हरेक को उत्साहित बनाए रखना भी बेहद जरूरी होता है और इसके लिए एक अच्छे नेतृत्वकर्ता की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
प्राचीन एवं मध्ययुग में युद्धों के दौरान सेनापति की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होती थी. सेनापति ही अपनी टीम के सदस्यों में उत्साह भरता था और योजनाओं के अनुरूप युद्ध करता था. सेनापति की बेहतर योजनाओं और युद्ध में भाग लेने वाली उसकी सेना की कुशलता के बल पर ही युद्ध जीता जाता था. अकेले न तो सेनापति युद्ध जीत सकता था और न ही बिना सेनापति के सेना युद्ध जीत सकती थी. उसी तरह किसी भी बड़े कार्य की सफलता में नेतृत्वकर्त्ता एक सेनापति की भूमिका में होता है और टीम के सदस्य उसकी सेना की तरह होते हैं, जो उसके मार्गदर्शन में कार्य करते हैं और अपने कार्यों द्वारा अपनी कार्यकुशलता का परिचय देते हैं।
आज के समय में टीम की उपयोगिता और उसका महत्त्व कार्यस्थलों पर देखे जा सकते हैं. प्रायः जो नेता अपनी टीम को एकजुट और प्रेरित रखने में कामयाब होता है, उसका प्रदर्शन अन्य टीमों व विभागों की तुलना में सबसे बेहतर देखा जाता है. टीम को एकजुट रखने के लिए नेतृत्वकर्त्ता को लगातार उनसे संवाद करते रहने की जरूरत होती है. अक्सर कई विभागों या टीम के रूप में कार्य करने वाले लोग एक - दूसरे के प्रति ईर्ष्याभाव रखने के कारण टीम की ताकत नहीं बन पाते और अपनी ही टीम को कमजोर बनाते हैं।
ऐसे में नेतृत्वकर्ता ही होता है जो अपनी टीम के हर सदस्य से मिलकर, उनके मतभेदों को दूर करके उनके बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने की भूमिका निभाते हुए उन्हें निरंतर उत्साहित करता रहता है. यह नेतृत्वकर्त्ता का ही विशेष गुण होता है कि वह अपनी टीम के हर सदस्य की खूबियों व खामियों से परिचित होता है और वह इस बात को भी बखूबी जानता है कि कैसे अपनी टीम के सदस्यों की कमजोरियों व खामियों को उनकी खूबियों व ताकतों में बदलना है।
प्राय: यह देखा जाता है कि एक उदासीन क्षेत्र में रहने वाली टीम कभी भी, किसी नई चुनौती का सामना नहीं करना चाहती. वह किसी-न-किसी बहाने या तो इससे अपना पीछा छुड़ाती है या फिर टालमटोल करते हुए ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर देती है कि आगे से उसे कोई चुनौतीपूर्ण कार्य दिया ही न जाए. वहीं दूसरी ओर उत्साह और समर्पण से भरी हुई टीम खुद आगे बढ़कर चुनौतीपूर्ण कार्यों की न सिर्फ माँग करती है, बल्कि समय से पहले उसे पूरा भी कर देती है. इस तरह इन दोनों ही तरह की टीमों के लिए उनके नेता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. एक नेता जहाँ अपने उदासीन भाव से अपनी टीम को अकर्मण्य बना देता है, तो वहीं दूसरा नेता अपने उत्साही भाव से टीम के सदस्यों में जान फूँक देता है।
एक नेता अपनी जिम्मेदारियों से पीछा नहीं छुड़ा सकता यानी एक नेता अपनी टीम के सदस्यों को कुछ कार्य देकर अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा नहीं पा सकता और निरंतर अपनी टीम पर दबाव बनाकर भी टीम से बेहतर परिणाम को नहीं पाया जा सकता. लगातार अच्छे परिणाम व प्रदर्शन के लिए नेता को अपनी टीम के सदस्यों की परेशानियों को भी समझना जरूरी है. उनके सुख-दुःख का साझीदार बनकर और यथासंभव उनकी मदद करके उनसे भावनात्मक संबंध भी विकसित किए जा सकते हैं।
जब किसी टीम के सदस्यों को यह एहसास हो जाता है कि उनका लीडर उनकी हर मुश्किल में उनके साथ है, उनका सुरक्षा कवच है तो वह टीम भी अपने लीडर के एक इशारे पर कोई भी कार्य करने को तैयार रहती है. ऐसी परिस्थितियों में भी उसे अपनी मुश्किलों की बहुत ज्यादा परवाह नहीं होती, क्योंकि वह अपने नेता व टीम की प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आने देना चाहती।
इस तरह किसी भी कार्य में नेता और टीम के सदस्य, दोनों की ही भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है और यदि ये मिलकर कार्य करते हैं तो बड़े-से-बड़े व कठिन से कठिन कार्य को भी सहजता व सरलता से कर सकते हैं और यदि इनमें बिखराव हो जाता है, तो छोटा व सरल कार्य करने में भी ये असमर्थ होते हैं. इसलिए कार्य को सफल बनाने के लिए टीम वर्क या सामूहिकता के भाव का होना जरूरी है।
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