Birth-death and eternal flow of life:
जन्म और मृत्यु, दोनों ही सामान्य इनसान के लिए पहेली जैसे हैं. जन्म से पूर्व क्या था और मृत्यु के बाद क्या होता है, यह सहज रूप में स्पष्ट नहीं होता, किंतु द्रष्टा ऋषियों की प्रकाशपूर्ण दृष्टि में जन्म और मृत्यु सिर्फ संयोग मात्र नहीं हैं. मानव जीवन केवल आकस्मिक उत्पत्ति नहीं है. वह एक क्रमिक श्रृंखला में कड़ी है, जिसके द्वारा आत्मा अपने प्रयोजन को क्रमशः विकसित करके मानवीय आत्मचेतना के द्वारा कार्य करती है. आत्मचेतना के शाश्वत काल में जीवन और मृत्यु दिवस-रात की तरह घटित होते रहते हैं।
ऋग्वेद के ऋषि इसी तत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मृत्यु के उपरांत जब पंचतत्त्व अपने- अपने में मिल जाते हैं, तब जीवात्मा बची रहती है और वह जीवात्मा ही दूसरी देह धारण करती है. इस तरह जीवात्मा के पुनर्जन्म की बात वेदों में स्पष्ट रूप में कही गई है. इसी तरह अथर्ववेद में ऐसे मंत्रों की भरमार है, जिनमें पुनर्जन्म पर किसी- न-किसी तरह प्रकाश डाला गया है. इसके ऋषि कहते हैं कि अमर जीवात्मा मरणधर्मा शरीर के साथ संयुक्त होती है।
श्रीमद्भगवद्गीता में पुनर्जन्म के ध्रुवसत्य को यों व्यक्त किया गया है - जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्भुवं जन्म मृतस्य च। योगदर्शन के अनुसार अविद्या आदि क्लेशों के जड़ होते हुए उसका परिणाम जन्म, मृत्यु, आयु और भोग होता है. सांख्य दर्शन के प्रथम सूत्र के अनुसार- पुनर्जन्म के कारण ही आत्मा के शरीर, इंद्रियों तथा विषय से संबंध जुड़ते रहते हैं। न्याय दर्शन के अनुसार पैदा हुए प्राणी का मरकर फिर जन्म होता है।
इसी तरह पश्चिमी दर्शन में भी पुनर्जन्म के सत्य पर प्रकाश डाला गया है. प्लेटो ने तो दर्शन की व्याख्या मृत्यु तथा मरण का प्रदीर्घ अभ्यास कहकर की है. प्लुटार्क और सोलोमन भी पुनर्जन्म में आस्था रखते थे. पाइथागोरस का विचार था कि साधुता का पालन करने पर आत्मा का जन्म उच्चतर लोकों में होता है और दुष्कृत आत्माएँ निम्न पशु आदि योनियों में आती हैं. स्पिनोजा, हर्टली तथा प्रीस्टले का आत्मा के अमरत्व पर विश्वास था. रूसो के शब्दों में वास्तविक जीवन का प्रारंभ मृत्यु के बाद होता है. क्रिस्टन वुल्के के अनुसार आत्मा सूक्ष्म होती है और हमारे गुप्त कर्म ही वर्तमान जीवन के कारण हैं।
काण्ट के मत में प्रत्येक आत्मा मूलतः शाश्वत है. फिक्टे के अनुसार-मृत्यु, आत्मा के जीवन प्रवाह में एक विश्राम स्थिति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है. शेलिंग के मतानुसार-उच्च आत्माएँ उच्च नक्षत्रों में जन्म लेती हैं. नोवालिस के शब्दों में जीवन है कामना और कर्म हैं उसके परिणाम. जीवन और मृत्यु एक ही वस्तु हैं और इनमें से गुजरते हुए आत्मा अमरता को प्राप्त करती है. हेगल के मत में सभी आत्माएँ पूर्णता की ओर बढ़ रही हैं तथा जीवन और मृत्यु इनकी अवस्थाएँ हैं. इस तरह अस्तित्व के शाश्वत प्रवाह में जीवन और मृत्यु अपनी सम्यक व्याख्या व अर्थ को पाते हैं।
आज परामनोविज्ञान की खोजों से भी यह सिद्ध हो चुका है कि मृत्यु केवल स्थूलशरीर को ही नष्ट कर पाती है, मरने के बाद भी मृत व्यक्ति की आत्मा इस संसार के व्यक्तियों पर प्रभाव डालती रहती है। दि स्टोरी ऑफ साइकिक साइन्स में हैरवार्ड कैरिंगटन लिखते हैं कि इस कारण स्थूलशरीर को ही व्यक्तित्व मानना तथा यह कहना कि स्थूल शरीर के समाप्त होने पर व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है, ठीक उसी प्रकार से है, जिस प्रकार से यह कथन कि बिजली का बल्ब फूट जाने पर या उसके फ्यूज हो जाने पर बिजली ही नहीं रह जाती और उस बल्ब के स्थान पर कोई बल्ब ही नहीं जल सकता. व्यक्तित्व की इस प्रकार की धारणा मूर्खतापूर्ण धारणा है।
प्रो. एस.सी. नारथ्राप कहते हैं कि आत्मा के अमरत्व का निषेध करने वाले पाश्चात्य जड़वादी भी भौतिक शास्त्रांतर्गत शक्ति तथा अचेतन द्रव्य की अध्यक्षता को मानकर एक तरह से अमरत्व की ही स्वीकृति देते हैं. नारथ्राप के अतिरिक्त अन्य आधुनिक वैज्ञानिक भी मृत्यु के बाद व्यक्तित्व विद्यमान रहता है- इस तथ्य की पुष्टि करने लगे हैं. पास्ट लाइफ रिग्रेशन के नाम से पुनर्जन्म के तथ्य को पुष्ट करने वाली एक पूरी विधा पर मनोवैज्ञानिक अनुसंधान चल रहे हैं।
जन्म लेने, जीवन धारण करने का एक ही मौलिक प्रयोजन है- जीवन और सृष्टि में भागवत सौंदर्य की परिपूर्ण अभिव्यक्ति. इस हेतु व्यक्तिगत आत्मा विभिन्न रूपों में विकसित होती है, जब तक कि वह मानव तक नहीं पहुँच पाती, जो कि और भी उच्चतर स्तरों के लिए एक सीढ़ी मात्र है. निम्न से उच्च तक, पशु से मानव तक प्रगति सुनिश्चित है. जीवात्मा मानव शरीर में आकर भी बार-बार इसे धारण करती रहती है. इस क्रम में शरीर भले ही मानवाकार बना रहता है, पर हर बार भगवान के सौंदर्य की अभिव्यक्ति बढ़ती जाती है. यह विकास की सामान्य प्रक्रिया है, जो महामानव, देवमानव, ऋषि के क्रम में उत्तरोत्तर गतिशील रहती है।
मानव सामान्यतया अगला जन्म मानव के रूप में ही प्राप्त करता है. मानवीय चेतना इतनी उत्कृष्ट कोटि की है कि उसका निचली योनियों में गिरना कतिपय कठिन है. तब भी यदि कोई मनुष्य वह मानवीय सद्गुणों से निरंतर दूर ही हटता जाए, मानवीयता की संज्ञा से जुड़े भाव स्पंदनों को कुचलता ही रहे और पाशविक प्रवृत्तियों को ही अपनाकर उन्हीं को अपना साध्य, इष्ट, लक्ष्य समझने लगे तो फिर उसका नर-पशुओं, नर-कीटकों की निम्नतर योनियों में जाना तय हो जाता है, परंतु इस कोटि का पतन बहुत थोड़े ही लोग प्राप्त कर पाते हैं।
अधिकांश लोग अपनी शक्ति भर ऊपर उठने का ही प्रयास करते हैं, क्योंकि आनंद प्राप्त करने की प्रत्येक जीवात्मा की मूलभूत इच्छा होती है और मनुष्ययोनि में आने तक जीवात्मा इतनी विकसित तो हो ही चुकी होती है कि वह आनंद के नाम पर नारकीय दुःखों को ही अपनाने में न जुट जाए. फिर जब कभी वह मोह और वासना के आवेग में उधर अधिक मुड़ता भी है तो उसका मानवीय अंत:करण उसे कचोटने लगता है, वह छटपटाने लगता है और तब तक सामान्य स्थिति में नहीं आ पाता, जब तक प्रायश्चित और भूल-सुधार कर वह पुनः सामान्य एवं सहज मानवीय स्तर को न प्राप्त कर लेता।
इस तरह आत्मसत्ता के संकल्प एवं कर्म ही प्रत्येक मनुष्य की प्रगति या पतन के आधार बनते हैं. मनुष्य की इच्छा ही कर्म का स्वरूप गढ़ती है. कर्म और विषय-चिंतन संस्कारों का रूप ले लेते हैं. कर्मफल एवं संस्कार -प्रारब्ध का निर्माण करते हैं, प्रारब्ध जन्मांतर के स्वरूप का निर्धारण करते हैं. इन सबके मूल में इच्छा ही है।
गीताकार के शब्दों में भी मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, उस-उस को प्राप्त होता हुआ, अंतिम गति को प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा जिस भाव का चिंतन करता है, अंतकाल में भी प्रायः इसी का स्मरण होता है. इस प्रकार इच्छा का स्वरूप और कर्म के संस्कार अगले जन्म में विकासक्रम के मानक के रूप में उभरते हैं।
इस तरह पुनर्जन्म एक शाश्वत व्यक्तित्व के सतत नए-नए रूप धारण करने अथवा लंबे समय तक जिंदा रहने वाला उपकरण न होकर प्रकृति में आध्यात्मिक विकास का साधन है, भगवान के मंजुल सौंदर्य को नए-नए ढंग से अभिव्यक्त करने का माध्यम है।
अपनी अभिव्यक्ति हेतु जन्म-जन्मांतर की कोशिशों के बाद जीवात्मा विकास की पूर्णता, परम एकत्व-मोक्ष के रूप में प्राप्त करती है. गीताकार के शब्दों में अनेक जन्मों से अंत:करण की शुद्धि रूप सिद्धि को प्राप्त हुआ योगी परम गति को प्राप्त होता है. वैदिक दर्शन में इसे मानव जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। मुक्ति वह अवस्था है, जिसमें मनुष्य सब वासनाओं को त्यागकर पूर्णकाम हो जाता है और सब प्रकार के दुःख एवं कष्टों से दूर विशुद्ध दिव्य आनंद के महासमुद्र में हिलोरें लेने लगता है. इस तरह जीवन और मृत्यु शाश्वत जीवन-प्रवाह के आवश्यक सोपान भर हैं, जो जीवात्मा को परम लक्ष्य की ओर ले जाते हैं।
Amit Sharma
Writer